Wednesday, January 13, 2010

बचपन की यादें...

...जब मम्मी बनूंगी

बचपन कितना अच्छा होता है, इसका एहसास तब होता है जब हम बड़े हो जाते हैं। आज सुबह आंख खुलने पर देखा कि बारिश हो रही है। इस बारिश ने नींद की खुमारी को बढ़ा दिया। मन हुआ काश आज ऑफिस न जाना होता तो मैं अभी और सोती। तभी अचानक छन से बचपन की एक याद आ गई कि बचपन में जब भी कोई काम न करने को जी चाहता तो सोचती मैं कब बड़ी होऊंगी और मम्मी बनूंगी। मम्मी का मतलब मां बनने से नहीं, बल्कि बड़े होने से था।
दरअसल मुझे लगता कि मम्मी चाहें तो देर तक सो सकती हैं, उनका मन करे तो वह काम करें वरना नहीं, मम्मी का हर ऑर्डर सबको मानना पड़ता है। उन्हें स्कूल नहीं जाना होता, उन्हें पढ़ना नहीं होता। हमारे पास तो कितनी ही किताबें हैं जो हमें रटनी होती हैं। दरअसल बचपन में मुझे ऐसा लगता था कि मम्मी के पास कितनी पावर होती है। हालांकि अब अगर सोचूं तो ऐसा कुछ भी नहीं था। हम तो विंटर वैकेशन और समर वैकेशन और बाकी छुट्टियों में देर तक सो लेते थे। लेकिन मम्मी को कभी देर तक सोते नहीं देखा। मम्मी सुबह जल्दी उठतीं थीं। उनका हर काम एकदम परफेक्ट और समय पर होता। शाम को ही हमारे स्कूल के कपड़े तैयार करना। सुबह हमें उठाना, स्कूल के लिए तैयार करना, ठीक समय पर हमें नाश्ता कराना, हमारा टिफिन, और फिर स्कूल का रिक्शा आने का समय होते ही हमें अलर्ट कर देना।
छुट्टियों के दिन भी मां के पास ढेरों काम होते। हमारे लिए बढ़िया नाश्ता बनाना, खाने में कुछ खास इंतजाम, घर की साफ-सफाई, घर में क्या है क्या नहीं है इसका ध्यान रखना, दादी का खाना, दादी की दवा। ऐसे ही न जाने कितने काम मम्मी के पास होते। हम भी मम्मी से ढेरों फरमाइशें करते और मम्मी उसे पूरा करने की हर कोशिश करतीं। वैसे तो यह काम रोज ही के होते थे पर हम स्कूल जाने के बाद इन्हें नहीं देख पाते थे। जिन्हें शायद अब हमें करना पड़े तो हम नहीं कर सकते। अपने उसी 24 घंटे में वह चकरघिन्नी बनी सबके काम खुशी-खुशी निपटाती जातीं।
आज जब अपनी जिंदगी देखती हूं तो लगता है मम्मी जितनी जिम्मेदारी तो शायद मैं कभी उठा ही नहीं सकती। और अब उस सोच से भी डर लगता है कि मैं मम्मी बनूंगी। अब लगता है बचपन ही ठीक था बारिश होने पर कम से कम स्कूल में छुट्टी तो हो जाती थी। आज तो काम पर जाना ही है फिर चाहे बारिश हो या ओले पड़ें।

5 comments:

  1. ye daulat bhi le lo ye shohrat bhi le lo magar mujhko lauta do bachpan vo mera
    वाकई बच्पन ऐसा ही होता है जिसे खो कर कुछ पाने में मज़ा रह ही नहीं जाता। बचपन तो बहुत मासूम होता है जहां ऊंचाई का मतलब बस बाप के कंधे होते हैं और अलविदा कहने का मतलब कल फिर मिलेंगे के सिवा कुछ नहीं होता, यार दोस्तों के साथ धूल मिट्टी एक कर देना कितना सूकून देता है....बहुत अच्छी पोस्ट ...बधाई...

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  2. tumhari post padker kitna kuch yaad aa gaya, suhana bachpan, tab sochate kab khatm hogi yah padhai, kab hum bade honge. aaj lagata hai kash wo beperwahi ke din, wo sukun bhari rate, wo chanchal dophar,neem ke padh ka jhula, aam ki baag, doston sang ki shitaniyan kabhi na mil payegi.

    khoobsurt lekh ke liye badhai.
    yu hi likhati rahiye, bahut prabhavpurd hai apki shaili.

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  3. बेहतरीन लिखा है आपने.
    जारी रहें. शुभकामनाएं.
    [उल्टा तीर]

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  4. अच्छा हुआ "माँ" क्या होती है समझ आ गया - सच्चा और सार्थक आलेख

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