...जब मम्मी बनूंगी
बचपन कितना अच्छा होता है, इसका एहसास तब होता है जब हम बड़े हो जाते हैं। आज सुबह आंख खुलने पर देखा कि बारिश हो रही है। इस बारिश ने नींद की खुमारी को बढ़ा दिया। मन हुआ काश आज ऑफिस न जाना होता तो मैं अभी और सोती। तभी अचानक छन से बचपन की एक याद आ गई कि बचपन में जब भी कोई काम न करने को जी चाहता तो सोचती मैं कब बड़ी होऊंगी और मम्मी बनूंगी। मम्मी का मतलब मां बनने से नहीं, बल्कि बड़े होने से था।
दरअसल मुझे लगता कि मम्मी चाहें तो देर तक सो सकती हैं, उनका मन करे तो वह काम करें वरना नहीं, मम्मी का हर ऑर्डर सबको मानना पड़ता है। उन्हें स्कूल नहीं जाना होता, उन्हें पढ़ना नहीं होता। हमारे पास तो कितनी ही किताबें हैं जो हमें रटनी होती हैं। दरअसल बचपन में मुझे ऐसा लगता था कि मम्मी के पास कितनी पावर होती है। हालांकि अब अगर सोचूं तो ऐसा कुछ भी नहीं था। हम तो विंटर वैकेशन और समर वैकेशन और बाकी छुट्टियों में देर तक सो लेते थे। लेकिन मम्मी को कभी देर तक सोते नहीं देखा। मम्मी सुबह जल्दी उठतीं थीं। उनका हर काम एकदम परफेक्ट और समय पर होता। शाम को ही हमारे स्कूल के कपड़े तैयार करना। सुबह हमें उठाना, स्कूल के लिए तैयार करना, ठीक समय पर हमें नाश्ता कराना, हमारा टिफिन, और फिर स्कूल का रिक्शा आने का समय होते ही हमें अलर्ट कर देना।
छुट्टियों के दिन भी मां के पास ढेरों काम होते। हमारे लिए बढ़िया नाश्ता बनाना, खाने में कुछ खास इंतजाम, घर की साफ-सफाई, घर में क्या है क्या नहीं है इसका ध्यान रखना, दादी का खाना, दादी की दवा। ऐसे ही न जाने कितने काम मम्मी के पास होते। हम भी मम्मी से ढेरों फरमाइशें करते और मम्मी उसे पूरा करने की हर कोशिश करतीं। वैसे तो यह काम रोज ही के होते थे पर हम स्कूल जाने के बाद इन्हें नहीं देख पाते थे। जिन्हें शायद अब हमें करना पड़े तो हम नहीं कर सकते। अपने उसी 24 घंटे में वह चकरघिन्नी बनी सबके काम खुशी-खुशी निपटाती जातीं।
आज जब अपनी जिंदगी देखती हूं तो लगता है मम्मी जितनी जिम्मेदारी तो शायद मैं कभी उठा ही नहीं सकती। और अब उस सोच से भी डर लगता है कि मैं मम्मी बनूंगी। अब लगता है बचपन ही ठीक था बारिश होने पर कम से कम स्कूल में छुट्टी तो हो जाती थी। आज तो काम पर जाना ही है फिर चाहे बारिश हो या ओले पड़ें।
Wednesday, January 13, 2010
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